हाल ही में महाराष्ट्र में मराठी भाषा को लेकर एक बार फिर विवाद ने उग्र रूप ले लिया है। इस बार मामला सीधे सुशील केडिया, एक निवेशक और सामाजिक टिप्पणीकार से जुड़ा है, जिन्होंने सोशल मीडिया पर मराठी भाषा सीखने से इंकार कर दिया और MNS (महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना) को चुनौती दी। इसके जवाब में MNS कार्यकर्ताओं ने उनके मुंबई ऑफिस पर हमला कर दिया।
पूरा मामला क्या है?
1. मिरा रोड की घटना
मिरा रोड में एक मिठाई दुकान के मालिक ने ग्राहक से हिंदी में बात की। जब MNS कार्यकर्ताओं ने उसे मराठी में बात करने को कहा, तो उसने मना कर दिया। इसके बाद उस पर हमला किया गया और वीडियो वायरल हो गया।
2. सुशील केडिया की प्रतिक्रिया
इस घटना पर प्रतिक्रिया देते हुए सुशील केडिया ने X (पूर्व Twitter) पर लिखा:
“मैं 30 साल से मुंबई में हूं। मैंने मराठी नहीं सीखी और न ही सीखूंगा। ‘क्या करना है बोल?’… मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि अब मैं मराठी नहीं सीखूंगा।”
उन्होंने सीधे राज ठाकरे को भी चुनौती दी कि ऐसे “गुंडों की हरकतें” रोकी जाएं, वरना वह अपनी तरह से जवाब देंगे।
3. MNS कार्यकर्ताओं की हिंसक प्रतिक्रिया
इसके बाद MNS कार्यकर्ताओं ने उनके मुंबई स्थित ऑफिस पर हमला किया। घटना के वीडियो सामने आए हैं जिसमें बोर्ड तोड़ा गया और नारेबाज़ी की गई।
📞 धमकियों और सुरक्षा की मांग
सुशील केडिया ने कहा कि उन्हें अलग-अलग पुलिस स्टेशनों से कॉल आने लगे और धमकी दी गई कि वह माफी माँगें नहीं तो अंजाम भुगतेंगे। उन्होंने मुंबई पुलिस कमिश्नर, मुख्यमंत्री और गृहमंत्री अमित शाह से सुरक्षा की माँग की।
🗣️ क्या कहता है राजनीतिक वर्ग?
- MNS नेताओं ने कहा, “आप व्यापारी हो, व्यापार करो। अगर महाराष्ट्र में रहना है तो मराठी सीखो।”
- CM देवेंद्र फडणवीस ने कहा, “हिंसा की कोई जगह नहीं है। भाषा पर प्रेम से बात होनी चाहिए, डर से नहीं।”
🌐 गहरी समस्या क्या है?
मुद्दा | विवरण |
---|---|
भाषा की राजनीति | क्षेत्रीय अस्मिता और बहुभाषी समाज के बीच टकराव |
हिंसा का सहारा | MNS का आक्रामक रुख, लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमला |
स्वतंत्रता बनाम संस्कृति | क्या कोई व्यक्ति अपने पसंद की भाषा चुन सकता है? या वह क्षेत्रीय भाषा सीखने को बाध्य है? |
📍 निष्कर्ष
इस घटना से यह स्पष्ट होता है कि भाषा अब केवल संप्रेषण का माध्यम नहीं रही, बल्कि यह राजनीति, पहचान और सत्ता का औजार बन चुकी है।
जब कोई व्यक्ति कहता है “मैं मराठी नहीं सीखूंगा”, तो यह व्यक्तिगत पसंद हो सकती है, लेकिन जब यह सार्वजनिक चुनौती बन जाए — तो राजनीति उसमें कूद पड़ती है।
✊ आगे क्या?
- कानून व्यवस्था को सख्ती से लागू किया जाए।
- भाषाई विविधता को अपनाया जाए, न कि ज़बरदस्ती थोपा जाए।
- नेताओं और आम जनता — दोनों को संवाद के रास्ते पर आना चाहिए, टकराव के नहीं।
भाषा हमारी पहचान है, लेकिन उसकी गरिमा संवाद से बढ़ती है, हमला करके नहीं।
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